सम्पादकीय
मई 2019 का संपादकीय
देखते ही देखते पांच साल बीत गए। इस दौरान क्या-क्या नहीं हुआ। हमें कई नए शब्द जैसे लव जिहाद, गौ-रक्षक, सहित मैं हूँ चौकीदार जैसे आकर्षक जुमले सुनने मिले। इस सरकार की एक और बड़ी उपलब्धि रही रेडियो का पुनर्जागरण, जी हाँ वैसे तो यह सरकार ऑल इंडिया रेडियो को बंद करने से नहीं चुकी किन्तु इसने रेडियों से ‘मन की बात’ जैसा झुनझुना हमें जरूर सुनाया। जिस तरह एक शिशु का अपनी समस्याओं और जरूरतों से ध्यान भटकाने के लिए झुनझुने का सहारा लिया जाता है ठीक उसी तरह जब जब भी हमें मंहगाई रुलाती थी, भ्रष्टाचार दुःखी करता था, आदिवासियों की अपनी ज़मीन से बेदखली होती, किसानो के आंदोलन होते, उग्र भीड़ द्वारा निर्दोष नागरिकों की हत्या होती थी, दलितों पर अत्याचार होते। कॉर्पोरेट माफियाओं का सरकार से कर्जा लेकर देश से भागने के मामले सामने आते तब-तब हमें स्टार्ट अप इण्डिया, डिजिटल इण्डिया, क्लीन इंडिया फिर सर्जीकल स्ट्राइक जैसे सपने ‘मन की बात’ से दिखाए जाते। जैसे ही हम इन सपनो में खोने लगे कि हमें पता ही नहीं चला कि कब गैस सिलेंडर की कीमत, पेट्रोल की कीमत, ट्रेन का किराया बढ़ा दिया गया। हाँ हम तो खुश थे कि रिलायंस ने हमें मुफ्त में इंटरनेट और फ्री कॉलिंग मुहैय्या कराई पर उधर बीएसएनएल बर्बादी की कगार पर आ खड़ा हुआ।
बेरोजगारी का आलम तो यह रहा कि सरकार ने अपनी भद्द पिटने के
डर से बेरोजगारी के आंकड़े जारी करने पर ही रोक लगा दी। इसे कहते हैं मास्टर
स्ट्रोक! न रहेंगे आंकड़े न होगी बेरोजगारी पर चर्चा। वैसे यह कहना भी गलत है की इन
पांच सालों में कोई रोजगार का सृजन नहीं हुआ। सच तो यह है की इस समय आपकी अलग-अलग
योग्यता को देखते हुए बहुत से नए नए रोजगार के अवसर उपलब्ध कराये गए जैसे कम पढ़े
लिखे युवाओं के लिए गौ-रक्षक का पद, गरम स्वभाव वालों
के लिए अपनी-अपनी बिरादरी के कथित स्वाभिमान के लिए फिल्मो का विरोध करने वाली टीम, इंटरनेट की लत लगे युवाओ से सरकार से सवाल पूछने वालों पर फेसबुक और अन्य सोशल मीडिया पर गाली-गलौच करने वाले कार्यकर्ताओं की भर्ती आदि न जाने कितने नए नए रोजगार के
अवसर दिए गए।
हमें इन सपनो में किसने डुबाया यह उस एक अकेले मदारी का काम
नहीं है जो फकीरी का ढोंग किया फिरता है। एक आरटीआई से खुलासा हुआ है कि हमारे
प्रधानमंत्री की विदेश यात्राओं और प्रचार पर अब तक 66 अरब रुपये खर्च हो चुके हैं, लेकिन हमें यह थोड़ी
बताया गया। हमें तो सिर्फ झुनझुना सुनाया गया और लॉलीपॉप पकड़ाई गयी। इसके लिए पूरा
मीडिया-इलेक्ट्रॉनिक,
प्रिंट, सोशल सब जिम्मेदार है।
आश्चर्य की बात है कि एक समय मीडिया जिसे लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ समझा जाता था, आज किस हद तक गिर चुका है सच कहें तो इसके गिरने पर हमें कोई आश्चर्य नहीं
होना चाहिए। एक प्राइवेट मीडिया हाउस का मुख्य उद्देश्य लाभ कमाना होता है न कि
जनता को जागरूक करना। समाचार सुनाना उसकी मजबूरी है, लेकिन पैसा कमाना उसका उद्देश्य; फिर यदि हम इन
चैनलो से कोई उम्मीद पाले बैठे हैं तो यह हमारी ही भूल है।
इधर बाजारवाद के दौर में हर चीज बिकाऊ हैं। सच कहें तो
जिम्मेदारी,
ईमानदारी, नैतिकता, इंसानियत यह सब समाजवाद के दौर के शब्द हैं आर्थिक-उदारीकरण के इस दौर में सब
कुछ बिकने के लिए तैयार हैं। जिसका जितना मोल होगा कॉर्पोरेट उसे उतने अधिक दाम
में खरीदने के लिए तैयार है। बिकने-खरीदने के इस दौर में हम किस-किस को पाला बदलते
नहीं देखते हैं। दुःख होता है कि कुछ राजनेता जिन्होंने आदर्शवाद और जनसंघर्ष की
राजनीति से अपनी शुरुआत की थी आज किस हद तक बिक चुके हैं।
आम जीवन में कोई आदमी आज भी अपने मूल्यों से डिगता है तो हम
उसकी तमाम मजबूरियों के बावजूद भी उसे दोष दे सकते हैं पर राजनीति का क्या कहे। सच
कहें तो वैश्वीकरण और उदारीकरण के इस दौर में नेता को यदि राजनीति में जीना है तो
उसे बिकना ही होगा। क्योंकि सच यह है कि हम भ्रम में हैं कि हमारे देश में
लोकतंत्र है,
जबकि हकीकत यह है कि आज न सिर्फ हमारे देश बल्कि दुनिया के
हरेक छोटे-बड़े देशों पर कॉर्पोरेट की ही हुकूमत है। जो हर पार्टी और हर नेता को
फंडिंग देने के लिए तैयार बैठी है। इन कॉर्पोरेट की कोई राजनीतिक विचारधारा नहीं
होती इनकी नजरों में हर पार्टी और हर नेता एक माल होता है जिसकी कीमत उसकी
राजनीतिक औकात से तय होती है।
कॉर्पोरेट की ये फंडिंग कोई दान नहीं बल्कि एक सौदा होता
है। इसलिए इनकी फंडिंग से चुनी सरकार इन्हीं के इशारो पर चलने को मजबूर होती है।
फिर जैसा कि हमने कहा कि कॉर्पोरेट हरेक पार्टियों को अपनी फंडिंग मुहैया कराती
हैं इसलिए चाहे जो पार्टी सत्ता में आये उसकी नीति वही रहती है जो पिछली सरकार की
रही थी। हाँ विचारधारा के अनुसार हल्का-फुल्का फेरबदल जरूर होता है जैसे की कोई
हिंदुवादी हो,
तो कोई सेकुलरवादी आदि। यानी पार्टी की विचारधारा के अनुसार
किसका अधिक शोषण किया जाना है यह बदल सकता है, परन्तु अधिकतम
लाभ किसके पास जाना है यह तो पहले से ही तय और पक्का होता है।
इधर रही सही कसर ईवीएम ने पूरी कर दी। देश की जनता इस पर
विश्वास नहीं करती। ऐसे कितने ही मामले सामने आये हैं कि वोट की बटन कहीं दबे और
वोट किसी और के खाते में जाए। लेकिन हमारी बिकाऊ मीडिया ऐसे मामलों को अपवाद जताने
में कोई कसर नहीं छोड़ती। इधर हमारे लोग भी तो कम नहीं जो अपनी पसंद की पार्टी के
हारने पर ईवीएम पर ठीकरा तोड़ते हैं। और बाकी समय अपने अपने नेताओ के बङप्पन के
किस्से हांकते फिरते हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज
पार्टी ने ईवीएम के खिलाफ आंदोलन की धमकी दी थी और इसके लिए एक तारीख भी पक्की कर
ली थी। लेकिन वह तारीख कब आई और कब चली गयी हमें पता नहीं चल पाया। इधर हमारे
बहुजनवादी अब इसलिए खुश हैं कि इस बार ये दोनों पार्टियां मिल कर चुनाव लड़ रही
हैं। यानी दोनों ही ये मान चुकी हैं कि पिछले चुनाव में उनकी हार ईवीएम से नहीं
हुई। और यदि इस चुनाव में भी इन्हें हार का सामना करना पड़े तो क्या हुआ ईवीएम है
न! यानी चित्त भी मेरी और पट्ट भी मेरी।
सवाल उठता है कि भले ही पार्टियाँ कॉर्पोरेट चंदे के दबाव
में बिक गयी हो। परन्तु क्यों नहीं कोई सामाजिक संस्था और एक्टिविस्ट वंचित तबकों
के लिए अपनी आवाज़ बुलन्द करते? भाई आपका सोचना जायज है, लेकिन आपको पता होना चाहिए कि दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यकों और मानवाधिकारों के मुद्दों पर मीडिया और अन्य जगह पर अपनी
उपस्थिति दर्ज कराती ये संस्थाए और एक्टिविस्ट की फंडिंग भी उन्हीं कॉर्पोरेट घरानों
से हो रही है जो देश की तमाम राजनीतिक पार्टियों के लिए अपनी थैली खोले बैठे हैं।
यानी इन एक्टिविस्टों के चेहरे के भाव और सहानुभूति की बड़ी-बड़ी बातें तथा समय-समय
पर किये जाने वाले आन्दोलन आपकी मुक्ति के लिए नहीं बल्कि इस रणनीति के तहत् होते
हैं कि अपना नेतृत्व विकसित न हो सके। यह कॉर्पोरेट जगत की एक कुत्सित चाल है।
इसलिए यदि हमें जनतंत्र को बचाना है तो किसी पार्टी, संस्था या बाहरी एक्टिविस्ट से उम्मीद नहीं करनी चाहिए बल्कि अपने-अपने इलाको
में खुद को प्रयास करना होगा।
डॉ. रत्नेश कातुलकर
सह –संपादक, हाशिये की आवाज़

